अत्यंत दुख की बात है
कि डॉ. ए.पी.जे.अ. कलाम का कल शाम को निधन हो गया। भारत माता ने अपना एक और सपूत
खो दिया। सवा अरब की आबादी वाले देश में सवा सौ भी ऐसे लोग नहीं हैं जिन पर वैसे
ही गर्व किया जा सके, जैसे हम डॉ. कलाम जैसी हस्तियों का नाम सुनकर किया करते हैं। डॉ.
कलाम के कठिनाइयों भरे बचपन और अपनी मेहनत के बल पर देश की समर्पित सेवा और
राष्ट्रपति बनने तक का सफर हम सभी के लिए अनुकरणीय है। ऐसी महान हस्ती को देखकर
कर्मठ युवाओं में इतना जोश भर जाता है वे देश के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार हो
जाएँ।
परंतु दुख की बात है
कि भारत माता अब कर्मठ सपूत विरले ही पैदा कर रही है। देश का युवा आज अधिक से अधिक
क्रिकेट और सिनेमा में व्यस्त है। राजनीति तो देश को गर्त में ले जाने में कोई
कोर-कसर नहीं छोड़ना चाहती। संसद में वास्तविक कामकाज छोड़कर बाकी सबकुछ हो रहा है।
बात शिक्षा की करें तो पिछले एक-दो दशकों में शिक्षा के स्तर में जो भारी गिरावट
आई है, वह भारत को किसी भी दिशा में ऊपर ले जाने लायक नहीं दिखाई पड़ती। सन् 2000
के आस-पास तक 10वीं और 12वीं बोर्ड की परीक्षा आते ही छात्रों की नींद हराम हो
जाती थी। मुश्किल से कोई द्वितीय श्रेणी से पास हो पाता था और पूरे मुहल्ले में
खुशी के साथ मिठाई बँटती थी। लेकिन आज उसकी क्या दुर्गति है – ‘पैसा फेंको, तमाशा देखो।’ जिस
श्रेणी में चाहें, जितने प्रतिशत से चाहें, आप पास हो सकते हैं, बस रेट बढ़ता जाएगा। प्रथम
श्रेणी से पास होने वाला छात्र भी यह सोचकर खुशी नहीं मनाता कि 80% या 90% नहीं ला
सका, भले ही उसने एक दिन भी पढ़ाई न की हो।
सरकारी ‘प्राथमिक
विद्यालय’ और ‘माध्यमिक विद्यालय’ तो गरीबी उन्मूलन केंद्र बन गए हैं।
मुफ्त की किताबें, ड्रेस, खिचड़ी और अब
दूध। सब कुछ विद्यालय द्वारा ही उपलब्ध कराया जा रहा है। इन विद्यालयों में सब कुछ
हो रहा है, बस ‘पढ़ाई’ को छोड़कर। यहाँ पढ़ने वाले विद्यार्थियों का स्तर इस प्रकार गिरा दिया गया
है कि सरकारी विद्यालय में बच्चों को पढ़ाना दरिद्रता की निशानी बन गई है। एक सामान्य
नागरिक चाहकर भी अपने बच्चे को वहाँ नहीं भेज सकता। डॉ. कलाम जैसी किसी भी महान
हस्ती जीवनी उठाकर पढ़ ली जाए, सबका बचपन गरीबी में ही गुजरा
है और तमाम कठिनाइयों को पार करते हुए उन्होंने देश का नाम रोशन किया है। अब खिचड़ी
खाने वाली पीढ़ी से डॉ. कलाम पैदा होने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?
मिशनरी स्कूल सरकारी
विद्यालयों के विकल्प के रूप में उभरकर सामने आए हैं। कोई भी व्यक्ति, भले
ही एक समय का भोजन न करे, अपने बच्चों को मिशनरी स्कूलों में
ही भेज रहा है। इन स्कूलों की फीस इतनी ज्यादा कि ये ‘स्कूल’ कम, ‘लूट केंद्र’ ज्यादा दिखाई पड़ते हैं। हजारों और लाखों की फीस भरने के बाद पढ़ाई कम और
दूसरी चीजें ही ज्यादा मिलती हैं, जैसे – भव्य बिल्डिंग, चमचमाती हुई बसें, भारी भरकम बस्ता, सप्ताह के सातों दिनों के लिए सात ड्रेस और डिसिप्लीन के नाम पर ठगने के
विविध उपाय। जो संस्थान धन अर्जित करने के उद्देश्य से खोले गए हैं, भला उनसे विद्या अर्जन की उम्मीद कैसे की जा सकती है? इन स्कूलों की स्थिति का चित्रण प्रेमचंद ने ‘कर्मभूमि’ में बहुत ही साफ शब्दों में किया है – “कचहरी में पैसे का राज है, हमारे स्कूलों में भी पैसे का राज है, उससे कहीं कठोर, कहीं निर्दय। देर में आइए तो जुर्माना, न आइए तो जुर्माना, सबक न याद हो तो जुर्माना, किताबें न खरीद सकिए तो जुर्माना, कोई अपराध हो जाए तो जुर्माना, शिक्षालय क्या है, जुर्मानालय है। यही हमारी पश्चिमी शिक्षा का
आदर्श है, जिसकी तारीफों के
पुल बांधे जाते हैं। यदि ऐसे शिक्षालयों से पैसे पर जान देने वाले, पैसे के लिए गरीबों का गला काटने वाले, पैसे के लिए अपनी आत्मा बेच देने वाले छात्र
निकलते हैं, तो आश्चर्य क्या
है...”
क्या यहाँ हम किसी ‘कलाम’ के पैदा होने की उम्मीद कर सकते हैं? गरीबी में
पैदा होने वाली इन हस्तियों का इन स्कूलों में प्रवेश नहीं होगा, और यदि किसी भी प्रकार से प्रवेश हो भी जाता है तो उनकी पढ़ाई के समय का
बड़ा हिस्सा टाई बाँधने और जूते के फीते बाँधने में चला जाएगा। यह स्वत: सिद्ध बात
है कि विद्या का ड्रेस और फॉर्मलिटीज से कोई संबंध नहीं हैं,
किंतु ये संस्थान तो पढ़ाई से ज्यादा ये सब ही सिखाते हैं।
हमें गर्व है कि डॉ.
कलाम जैसी हस्ती हमारे देश में पैदा हुई और देश का नाम रोशन किया। परंतु इसके साथ
ही मुझे लगता है कि आज उनके निधन पर शोक व्यक्त करने के साथ-साथ हम यह भी सोचें कि
हमारा समाज ऐसा बचा है कि आगे कोई और ‘कलाम’ पैदा हो सकेगा?
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