डॉ. धनजी प्रसाद एवं रागिनी कुमारी
संपूर्ण ब्रह्मांड में
पृथ्वी अब तक का एकमात्र ज्ञात ग्रह है जहाँ पर जीवन है। किंतु प्रश्न यह उठता है कि जीवन क्या है। जैसा कि पदार्थ, ऊर्जा और चेतना के वर्गीकरण से स्पष्ट है कि चेतना से युक्त पदार्थ में जीवन होता है। अत: किसी पदार्थ में चेतना का होना जीवन है। इस ब्रह्मांड में खरबों ग्रह हैं जिनमें से एक पृथ्वी है। पृथ्वी पर जीवन इसी रूप में पाया जाता है। हो सकता है कि किसी अन्य ग्रह पर यह किसी अन्य रूप में उपलब्ध हो। यहाँ पर हम पृथ्वी पर प्राप्त प्राणियों के जीवन से ही आरंभ करते हैं। इस पृथ्वी पर प्रत्येक चीज एक व्यवस्था के अंग के रूप में कार्य कर रही है। प्राणी भी एक दूसरे के पूरक के रूप में हैं। अभी जंगलों को काटने और कुछ महत्वपूर्ण जंगली जानवरों के लुप्तप्राय होने से कैसे पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ गया है यह बताने वाली बात नहीं है। इस पृथ्वी पर ही लाखों प्रकार से सूक्ष्म से लेकर विशाल तक प्राणी हैं। बहुत सारे विलुप्त भी हो गए हैं जिनके अवशेष समय-समय पर हमें प्राप्त होते रहे हैं। जीवों में इतनी विविधता अपने आप में आश्चर्यचकित कर देने वाली बात है।
जीवन
होने के लिए दो चीजों का होना आवश्यक है – भौतिक शरीर और उसमें चेतना। एक शरीर और उसमें चेतना से युक्त वस्तु जीव कहलाती है, चाहे उसकी रचना कैसी भी हो। प्रत्येक जीव में चेतना एक सीमित समय तक ही रहती है। इसका हम दिन, महीने, वर्ष आदि इकाइयों में हिसाब करते हैं, जिसे उस प्राणी की आयु कहा जाता है। सभी प्रकार के प्राणियों की औसत आयु लगभग सुनिश्चित होती है जो एक मिनट/दिन से लेकर 2-3 सौ वर्षों तक हो सकती है। इस दृष्टि से मनुष्य की बात करें तो मनुष्य की औसत आयु 60-70 वर्ष है। इसलिए अब मानव जीवन के सापेक्ष मुझसे पूछे कि जीवन क्या है, तो मैं यही उत्तर दूँगा – “जीवन एक शरीर के साथ दिया गया 60-70 वर्ष का समय है, इसे आप चाहे जैसे काट लीजिए।”
मानव जीवन के मूल की व्याख्या करने के लिए यह परिभाषा पर्याप्त है। इसलिए हमें इसी के अनुरूप अपने जीवन को जीने की योजना बनानी चाहिए। प्रत्येक प्राणी की शारीरिक संरचना के अनुरूप कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ और कार्य निश्चित होते हैं। इनमें सर्वाधिक प्राणियों पर लागू होने वाली तीन मूलभूत आवश्यकताएँ हैं – भोजन, निद्रा और संभोग। प्रत्येक प्राणी को जीवित रहने के लिए किसी न किसी प्रकार का आहार लेना पड़ता है। इसी प्रकार उसे निद्रा या विश्राम की आवश्यकता पड़ती है और अपनी जाति/प्रजाति को बनाए रखने और उसे आगे बढ़ाने के लिए संभोग करता है। यह बात मनुष्य पर भी लागू होती है। मनुष्य की भी प्राणीगत मूल आवश्यकताएँ ये ही हैं। किंतु मानव समाज और सभ्यता ने बहुत विकास कर लिया है। वह अब केवल एक प्राणी नहीं है। बल्कि वह एक निर्माता, उपभोक्ता और नियंत्रणकर्ता भी है। उसकी आवश्यकताएँ इतनी अधिक बढ़ गई हैं कि उसके लिए यह तय करना मुश्किल हो गया है कि उसे मूलभूत रूप से क्या चाहिए। वैसे मानव सभ्यता में शरीर को ढकने (या शरीर के किसी अंग विशेष को ढकने) को भी मूल कार्य मान लिया गया है। यदि बिना वस्त्र के सामाजिक नहीं हैं। सामाजिक जीवन जीने के लिए आपके शरीर पर न्यूनतम वस्त्र होने ही चाहिए जो आपके तथाकथित गुप्त अंगों को ढक सकें। सर्वविदित बात है कि ये गुप्त अंग संभोग से जुड़े अंग हैं। यहाँ पर मैं इन्हें तथाकथित इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ये ईश्वर या प्रकृतिप्रदत्त गुप्त अंग नहीं हैं। बल्कि ये मानव समाज द्वारा स्वीकृत गुप्त अंग हैं। गुप्त अंग तो कुछ आंतरिक प्रकार के अंग होने चाहिए (जैसे – हृदय, लीवर, आँतें आदि) जिन्हें हम चाहकर भी नहीं देख सकते। ये तो हमारे शरीर में बाहर ही बनाए गए हैं फिर ये गुप्त कैसे हो सकते हैं? खैर, यह एक अलग मुद्दा है।
मानव जीवन के लिए तीन मूल आवश्यकताएँ मानी गई हैं – भोजन, कपड़ा और मकान। इसे प्राणीमात्र की मूल आवश्यकताओं से तुलनात्मक रूप में देखें तो इनमें भोजन तो आहार ही है। मकान का संबंध अबाधित तथा सुरक्षित निद्रा और संभोग से है। कपड़ा मेरी समझ से उतना महत्वपूर्ण नहीं है। फिर भी, वर्तमान परिवेश में मानव शरीर इसका आदी भी हो गया है। इसलिए इसे भी रख लेते हैं तो मानव जीवन में इन तीन चीजों की व्यवस्था सबसे पहले होनी चाहिए। यही से सुख की नींव पड़ती है।
सुख:
सन 2009 में जब मैं एम.ए. का प्रथम वर्ष पूर्ण करके घर गया था तब मैं कई नई-नई बातें अपने घर वालों को शाम की बैठक में बताता था। इसमें किसी प्रसंग में मैंने बताया कि जो लोग एक लाख रुपए महीना कमा रहे हैं वे भी सुखी नहीं हैं। इसी दौरान मेरे छोटे भाई ने मुझसे पूछा कि सुख क्या है? मैंने उसे थोड़ी देर सोचकर उस समय उत्तर दिया था कि ‘सुख’ का पर्याय है ‘खुश’। अत: खुश रहने की अवस्था ही सुख है। किंतु बाद में मैं इस विषय पर गंभीरता से सोचने लगा। कई लोगों से मैंने चर्चा भी की। इसके बाद भी अचानक से दी गई मेरी यह परिभाषा अभी तक मुझे गलत नहीं लगी। हाँ इसमें अपूर्णता जरूर है, क्योंकिय यह सुखी रहने की विधि की ओर कोई खास तार्किक संकेत नहीं देती। इसलिए मैंने इस पर पर्याप्त चिंतन किया। इसमें सबसे पहले मुझे यही समझ में आया कि सुख को समझने के लिए सबसे पहले ‘जीवन’ को समझना होगा। मानव जीवन के संदर्भ में ‘जीवन क्या है?’
को मैं ऊपर बता चुका हूँ। जीवन पर विचार करने के कई दृष्टिकोण हो सकते हैं किंतु यह वस्तुनिष्ठ परिभाषा भी जीवन को तय करने के लिए पर्याप्त है कि जीवन एक शरीर के साथ दिया हुआ 60-70 वर्ष का समय है। (आप चाहे इसे जैसे काट लीजिए)।
अब हर कोई अपना जीवन सुखपूर्वक बिताना चाहता है। इसलिए देखा जाए तो ‘सुख’ जीवन मानव जीवन का लक्ष्य है। किंतु प्रश्न यह है कि सुख मिलता कैसे है? इस दृष्टिकोण से देखें तो ‘मनुष्य की इच्छाओं की पूर्ति हो जाना ही सुख है।’ आप खुद सोचिए – अपने-आप को सुखी कब महसूस करते हैं? निश्चय ही जब आपकी सारी इच्छाएँ या कोई बड़ी इच्छा पूर्ण हो जाए तो सुखी महसूस करते हैं। इच्छापूर्ति होने पर आप खुश या आनंदित होते हैं और यही से सुख आरंभ होता है, जैसे – किसी को नौकरी की इच्छा है और मिल गई तो हो गया सुखी; इसी प्रकार किसी को अच्छा सा घर चाहिए और मिल गया तो हो गया सुखी इत्यादि। किंतु एक उक्ति कही गई है कि मनुष्य की इच्छाएँ अनंत हैं। एक इच्छा की पूर्ति होते ही एक नई इच्छा जन्म ले लेती है। इसलिए एक इच्छा पूरी होने पर कुछ समय तक सुखी होने के बाद एक नई इच्छा जग जाने पर हम पुन: दुखी हो जाते हैं। इसलिए अपनी इच्छाओं को नियंत्रित रखना भी सुख का कारक है। इस संदर्भ में संस्कृत की प्रसिद्ध उक्ति प्रासंगिक है – ‘संतोषम् परमम् सुखम्’।
सुख की विपरीत स्थिति दुख है। इसलिए कहा जा सकता है कि दुखी न होने की अवस्था ‘सुख’ है। अत: दुख के विविध रूपों को समझकर और उन्हें रोककर सुखी रहा जा सकता है। दुख के निम्नलिखित प्रकार हैं –
1.
भौतिक
इसके चार प्रकार किए जा सकते हैं –
(अ) शारीरिक : शारीरिक का संबंध बिमारी, चोट आदि से मुक्त शरीर के होने से है। यदि कोई व्यक्ति बीमार है तो वह चाहे खरबपति क्यों ना हो और उसे सब प्रकार की सुविधाएँ प्राप्त हों फिर भी वह सुखी नहीं हो सकता। इसलिए सुखी रहने के लिए रोगमुक्त होना आवश्यक है। एक रोटी कम खाइए किंतु रोगमुक्त रहिए। इसी प्रकार शरीर को किसी प्रकार के चोट एवं अंग-भंग से बचाकर रखना भी आवश्यक है। चोटिल शरीर में दर्द होगा और जहाँ दर्द है वहाँ सुख कहाँ। तो इस संबंध में दो बातें – रोगमुक्त रहना और चोट आदि से शरीर को बचाकर रखना।
(आ) मूल आवश्यकतामूलक : सुखी रहने के लिए भोजन, कपड़ा और मकान इन तीनों का प्रबंध आवश्यक है। भोजन कैसा भी हो दोनों समय पेट भर हो जाना चाहिए, नहीं तो – ‘भूखे भजन न होय गोपाला’ की स्थिति होगी। इसकी प्रकार शरीर को ढकने भर का कपड़ा उपलब्ध हो सके और इतना मकान जरूर हो कि धूप, बारिश और जाड़े से उसमें बचा जा सके। इसके बाद बहुत बड़ी हवेली आदि की इच्छा होना एक अलग बात है। उसका सुख से नहीं इच्छा या महत्वाकांक्षा से संबंध है। अत: यदि आप इस दृष्टि से स्वयं को देखना चाहते हैं कि मैं सुखी हूँ कि नहीं तो भोजन, कपड़ा और मकान की व्यवस्था में अपनी स्थिति देख लें और कमी होने पर इसे ही पूरा करने का प्रयास करें।
(इ) सुविधामूलक : मूलभूत आवश्यकताओं के अलावा बहुत सारी ऐसी चीजें हैं जिनके होने से हमारी सुविधा बढ़ जाती है और इसे हम सुख की श्रेणी में रखते हैं। उदाहरण के लिए कहीं जाना हो और पैदल जाना पड़ता हो तो यह दुख की बात नहीं है किंतु साइकिल हो जाने से हमारी सुविधा बढ़ जाती है और हम सुखी महसूस करते हैं। इसी प्रकार मोटरसाइकिल हो जाए तो और अधिक सुखी हो जाते हैं, फिर कार, लक्जरी कार आदि। जीवन के विविध क्षेत्रों में इसी प्रकार की बहुत सी चीजें हैं जिनके होने से हमारी सुविधा बढ़ जाती है और अंदर ही अंदर हम अपने को अधिक सुखी समझने लगते हैं। किंतु इस बारे में मेरा मानना है कि ये चीजें हमारी सुविधा बढ़ाती हैं। इनसे ‘सुख’
(आनंद) नहीं प्राप्त होता बल्कि आराम बढ़ जाता है और इसे हम अपना सुख समझते हैं। मेरे एक मित्र ने नौकरी लगने के तुरंत बाद कार खरीदी और ऑफिस तथा बाजार आदि कहीं भी कार से ही आने-जाने लगे। लोगों ने देखा तो कहा कि बहुत सुखी हैं। 6 महीने बाद से पीठ में दर्द की शिकायत रहने लगी। बाद में बकायदे उसका इलाज कराना पड़ा। अब पीठ दर्द के साथ कार में बाजार जाना आप पसंद करेंगे या पैदल जाना, यह आपके ऊपर निर्भर करता है। अब आप खुद देख सकते हैं कि सुविधा से सुख नहीं बल्कि आराम मिलता है। इसलिए अपनी आवश्यकताओं और व्यवस्था भर सुविधा बढ़ाने वाली चीजों का प्रबंध तो करना चाहिए किंतु यह नहीं सोचना चाहिए कि कार/ए.सी./टी.वी./पलंग/फ्रिज... नहीं होने के कारण मैं सुखी नहीं हो पा रहा हूँ। इनके होने नहीं होने से सुख पर असर नहीं पड़ता बल्कि आराम या सुविधा पर असर पड़ता है।
सुविधा से सुख पर कोई असर नहीं पड़ता, इसे एक प्रसंग द्वारा समझा जा सकता है –
एक बार एक बहुत बड़ा उद्योगपति सुबह में अपनी लक्जरी कार से जा रहा था। रास्ते में एक जगह उसने देखा की सड़क के किनारे एक विशाल बरगद के पेड़ के नीचे चबूतरे पर एक युवक मस्त लेटा हुआ था। उस उद्योगपति ने सोचा कि कितना निकम्मा युवक है। इतना हट्ठा-कट्ठा होने के बावजूद कुछ काम-धाम करना चाहिए तो लेटा हुआ है। ऐसे लोग अपना और देश का विकास नहीं होने देते। फिर शाम के समय जब उद्योगपति वापस आ रहा था तो देखा कि वह युवक वैसे ही पेड़ के नीचे पड़ा हुआ है। अब उससे रहा नहीं गया। उसने गाड़ी रुकवाई और युवक के पास जाकर बोला,
“तुम्हे कोई बिमारी आदि है क्या?”
युवक – “नहीं तो!”
उद्योगपति – “मैं सुबह से ही देख रहा हूँ कि तुम यहीं पड़े हुए हो।”
युवक – “हाँ, मस्त आराम कर रहा हूँ।”
उद्योगपति – “तुम कोई काम वैगरह क्यों नहीं करते हो?”
युवक – “उससे क्या होगा?”
उद्योगपति – “तुम पैसा कमाओगे, विकास होगा!”
युवक – “फिर उससे क्या होगा?”
उद्योगपति – “तुम एक बड़ी दुकान या कंपनी खोल लेना।”
युवक – “फिर उससे क्या होगा?”
उद्योगपति – “तुम एक शानदार घर या बँगला बनवा लेना।”
युवक – “फिर उससे क्या होगा?”
उद्योगपति – “फिर और कमाना, तो तुम्हारे पास नौकर, गाड़ी सब होगा?”
युवक – “फिर उससे क्या होगा?”
उद्योगपति – “फिर तुम मस्त आराम करना!”
युवक – “तो अभी क्या कर रहा हूँ? आप जिस काम को इतना घुमा-फिराकर बता रहे हैं, वही काम तो मैं कर रहा हूँ।”
उद्योगपति निरुत्तर होकर चला गया।
इस कथा का सार यही है कि संसाधन बढ़ा लेने से सुख मिलेगा इसकी संभावना नहीं है। किंतु मूलभूत सुविधाएँ होनी चाहिए। उदाहरण के लिए शाम को घर पहुँचने के बाद युवक को पता चले कि घर में खाना नहीं है और उसे बनाने के लिए राशन भी नहीं है तो उसका सुख ‘सुख’ नहीं है। सुखी आप तभी हो सकते हैं जब आपके पास मूल आवश्यकताओं की व्यवस्था हो।
(ई) अन्य : अन्य में सभी बाह्य परिस्थितियाँ आती हैं जो कष्टकर हों, जैसे – आपके घर पहुँचने का रास्ता खराब हो या साल भर रास्ते में कीचड़ रहता हो तो कहीं न कहीं कष्ट पहुँचाता है। निरंतर होने के कारण सुख में एक बाधा की तरह खटकता है। इसी प्रकार आस-पड़ोस की स्थिति भी महत्वपूर्ण है। पता चले आपके बगल के पड़ोसी रोज झगड़ते हैं तो भले ही इससे आपका कोई संबंध नहीं है लेकिन कहीं न कहीं उससे आप परेशान जरूर होंगे और सुख बाधित होगा। इस प्रकार की समस्याएँ केंद्रीय न होकर परिधीय होती हैं।
2.
मानसिक
मनुष्य भौतिक के अलावा मानसिक रूप से भी दुखी होता है। ऊपर बताई गई सभी बातें ठीक होने के बाद भी बहुत सारे लोग दुखी रहते हैं क्योंकि उनका दुख बाह्य न होकर आंतरिक या मानसिक होता है। इसके भी दो भाग किए जा सकते हैं –
(अ) स्वानुभावी : इसमें वे सभी मानसिक समस्याएँ आती हैं जो खुद आपके द्वारा सर्जित होती हैं। प्राय: लोगों की विशेषता होती है कि यदि उनका पड़ोसी किसी मामले में आगे निकल रहा है तो उससे दुखी या परेशान रहते हैं। बेचारा वह अपना काम कर रहा है और टेंशन आप ले रहे हैं। इस बारे में आजकल एक उक्ति बहुत प्रचलित है – ‘लोग अपने दुख से कम दूसरे से सुख से ज्यादा परेशान हैं।’ अधिकांश लोगों के अंदर यह भावना होती है कि उनसे जुड़ा कोई व्यक्ति वैसे से रहे जैसे वे चाहते हैं। यदि वह उनकी इच्छा के अनुरूप नहीं रहता है तो परेशान रहते हैं और अपने सुख को बाधित करते हैं। पारिवारिक संबंधों में यह अधिक होता है। यदि किसी के व्यवहार से आपको कोई नुकसान नहीं हो रहा है तो आप क्यों चाहते हैं कि वह वैसे ही करे जैसे आप चाहते हैं।
इस तरह के दुख के कोई इलाज नहीं होता क्योंकि यह खुद से निर्मित दुख है। इसका इलाज भी आप ही के पास है कि आप अनावश्यक भावनाओं और विचारों का त्याग करें फिर सुखी रहें।
(आ) परानुभावी : कुछ मानसिक दुख दूसरों द्वारा प्रदत्त होते हैं। मुख्यत: यह स्थिति तब होती है जब आपको किसी के नीचे (अंडर में) काम करना हो। आधुनिक जीवन विधि में बॉस के नीचे काम करने की स्थिति कुछ ऐसी ही है। आपका बॉस आपको भौतिक रूप से कोई नुकसान नहीं पहुँचाता किंतु वह आपसे वैसे काम करने की उम्मीद करता है जैसे वह चाहता है। इसमें नाहक ही आप मानसिक रूप से दुखी रहते हैं। यह समस्या तब और बढ़ जाती है जब आपका बॉस मूर्ख, अहंकारी या सनकी हो। आप उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकते या जानबूझकर आप उससे झगड़ा मोल नहीं ले सकते और वह आपको डिस्टर्ब करता रहता है।
इस दुख से निपटने का अभी मेरे पास कोई उपाय नहीं है।
अतः संक्षेप में सुख के दो पक्ष हैं- मूल आवश्यकताओं की पूर्ति और मानसिक
लोभ की शांति। यदि किसी के जीवन में मूल आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पा रही है तो
तब तो वह दुखी रहेगा ही और इस प्रकार का दुख पर्याप्त स्तर तक न्यायोचित दिखाई पड़ रहा
है, किंतु मानसिक दुखों का कोई इलाज नहीं है।
कभी-कभी तो मुझे लगते है कि दुख मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है, क्योंकि बहुत से लोग सबकुछ होते हुए भी दुखी देखे जा सकते हैं। इसमें
आपको तय करना है कि आप कहाँ हैं।
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