Friday, November 11, 2016

ईश्वर : आवश्यकता और अस्तित्व


डॉ. धनजी प्रसाद एवं रागिनी कुमारी
ईश्वर और प्रेम मानव जाति के लिए दो ऐसी चीजें हैं जिनका अस्तित्व वैज्ञानिक दृष्टि से प्रमाणित नहीं किया जा सकता, किंतु इनके बिना किसी का काम भी नहीं चलता। इनमें ईश्वर अधिक विवाद का विषय है। ईश्वर में आस्था रखने की दृष्टि से आस्तिक और नास्तिक मुख्यत: दो प्रकार के लोग हैं। आस्तिक लोगों का विश्वास है कि ईश्वर है और वे भिन्न-भिन्न विधियों से उसकी पूजा-अर्चना करते हैं। नास्तिक लोगों का विश्वास है कि इस ब्रह्मांड में ईश्वर जैसी कोई चीज नहीं है। यह ब्रह्मांड प्रकृति के नियमों से संचालित है।
वास्तव में ईश्वर है या नहीं! यह एक बड़ा प्रश्न है, जिसके उत्तर हाँ और ना दोनों रूपों में दिए जा सकते हैं। इसका कारण है कि ईश्वर जैसी किसी चीज का प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं है। बस उसके होने के कुछ कारण या लक्षण दिखाई देते हैं, जिनके कारण उसकी सत्ता से इनकार नहीं किया जा सकता। ईश्वर के अस्तित्व के संबंध में मूल बात यह है कि उसके होने के संबंध में जितने तर्क दिए जा सकते हैं उतने ही तर्क उसके नहीं होने के संबंध में दिए जा सकते हैं। अत: केवल एक निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। इसलिए लंबी बात न करते हुए यहाँ से सोचना आरंभ किया जाए कि हमें (मानव जाति को) ईश्वर की आवश्यकता है या नहीं? यदि आवश्यकता है तो प्रसिद्ध उक्ति याद रखनी होगी – आवश्यकता अविष्कार की जननी है। अर्थात ईश्वर हो या न हो, चूँकि हमें उसकी आवश्यकता है इसलिए हम ईश्वर को मानेंगे ही। दूसरी तरफ यदि हमें ईश्वर की आवश्यकता नहीं है तो हम उसे नहीं मानेंगे, चाहे वह हो या न हो। इसलिए एक बार ईश्वर की आवश्यकता पर विचार किया जाना चाहिए।
मनुष्य के जीवन में घटनाएँ दो प्रकार से घटित होती हैं – नियोजित (planned) और आकस्मिक (accidental)। हमारी पूरी दिनचर्या नियोजित होती है, जैसे – सुबह उठकर दैनिक क्रिया, नाश्ता करना, ऑफिस दुकान जाना, फिर घर आना, शाम को बाजार या घूमने जाना फिर रात का भोजन और निद्रा। इसी प्रकार समय-समय पर हम विशेष योजनाएँ बनाते हैं, जैसे – कहीं दूर घूमने जाने की, कुछ नया खरीदने आदि की। हम अपनी योजना के अनुसार चल रहे हैं और हमारा काम अच्छे से हो जाता है, तो ऐसे में ईश्वर हो या ना हो इससे हमें क्या फर्क पड़ता है। फिर उसे मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर या गुरुद्वारे में ढूँढ़ना या पूजा करना हमारा शौक हो सकता है, मजबूरी नहीं। किंतु वास्तविकता कुछ और है। हमेशा ऐसा ही नहीं होता। बहुत सारे लोगों के साथ प्रतिदिन ऐसा कुछ होता है जो उनकी योजना में नहीं होता। वह अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी। वैसे सामान्यत: बुरा ही होता है। वह भी इतना बुरा कि उस पर हमारा नियंत्रण नहीं होता, लेकिन बहुत बड़ा नुकसान होता है। उदाहरण के लिए कोई बहुत बड़ी योजना के साथ शहर या बाजार जाता है और रास्ते में ही उसका एक्सीडेंट हो जाता है। यह तो उसकी योजना में नहीं था। फिर कैसे हो गया? इसी प्रकार ट्रेन से भारत में ही प्रतिदिन करोड़ों की संख्या में लोग यात्रा करते हैं, लेकिन ट्रेन दुर्घटना में ही प्रतिवर्ष हजारों लोगों की मृत्यु हो जाती है। इस सूची में हमारा या आपका किसी का भी नाम हो सकता है। कोई आवश्यक नहीं है कि मृत्यु ही हो, हाथ-पैर भी टूट सकते हैं। इसके अलावा किसी दूसरे प्रकार का भी नुकसान हो सकता है, जैसे- एक किसान की बहुत अच्छी फसल लगी है। कटाई का समय आ गया है। वह अब योजना बना रहा है कि कटाई-मड़ाई के बाद दो लाख में बेंचूँगा तो एक लाख रखकर एक लाख में घर बनाऊँगा। तभी रात में भयंकर बारिश होती है और फिर सारी फसल बर्बाद हो जाती है। यह तो उसकी योजना में नहीं था! फिर ऐसा कैसे हो गया।
इसी प्रकार लाभदायक भी घटनाएँ घट सकती हैं। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति नया घर बनाने के लिए नींव की खुदाई कर रहा है तभी उसे एक घड़ा सोना मिल जाए। या कोई सड़क से जा रहा है और उसे रुपयों से भरा बैग मिल जाए और वह एक मिनट में करोड़पति हो जाए। अब प्रश्न यह है कि इन घटनाओं को कौन नियंत्रित कर रहा है? जो बातें हमारी योजना में नहीं हैं वे किसके कारण घटित हो रही हैं? यदि उसके लिए कोई नियंता खोजेंगे तो एक छोटा सा शब्द मिलता है – भाग्य। भाग्य ही योजना के अतिरिक्त अन्य घटनाओं का कारण होता है। किसी के लिए कभी दुर्भाग्य होता है तो किसी के लिए कभी सौभाग्य। अच्छा हो गया तो सौभाग्य बुरा हुआ तो दुर्भाग्य। जब भी किसी के साथ मनुष्य के नियंत्रण से बाहर की घटना घटित हो जाती है, तो हम कहते हैं – उसके भाग्य में यही लिखा था। अत: यहाँ एक बात कही जा सकती है कि भाग्य ही आकस्मिक घटनाओं का कारण होता है। यदि किसी व्यक्ति की योजना में कोई बात नहीं है और फिर उसके साथ वह घटित हो जाती है तो वह इसलिए होती है कि वही उसके भाग्य में थी।
अधिकार, नियंत्रण और शासन – ये तीनों की चीजें मानव स्वभाव के मूल में हैं। प्रत्येक व्यक्ति अपने से जुड़ी हर चीज को अपनी इच्छा के अनुसार नियंत्रित करना चाहता है। यदि घर बनवाना है तो ऐसा बने जैसा मैं चाहता हूँ। यदि हम पशु भी पालते हैं तो उससे भी हम यही चाहते हैं कि वह अपनी मूल प्रवृत्ति का व्यवहार छोड़कर वैसे व्यवहार करे जैस हम चाहते हैं। यहाँ तक पति-पत्नी में भी यही होता है। पति की इच्छा होती है कि पत्नी वैसे रहे जैसे वह चाहता है और पत्नी भी चाहती है कि पति वैसे रहे जैसा कि वह उसे रखना चाहती है। शायद यही उनके बीच झगड़े का मूल कारण भी होता है। जहाँ ऐसा नहीं होता वहाँ दोनों आराम से जीते हैं। खैर, मूल बात यह है कि नियंत्रण मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है। वह हर चीज पर नियंत्रण रखना चाहता है। ऐसे में उसकी योजना के हिसाब से घटित होने वाली घटनाएँ तो कोई समस्या नहीं उत्पन्न करतीं, लेकिन वे सभी घटनाएँ जो आकस्मिक रूप से घटित हो जाती हैं। वे उसके बस में नहीं होतीं। संभवत: उसके भाग्य में होती हैं।
इसलिए मूल प्रश्न यह उठता है कि भाग्य को कौन नियंत्रित करता है? कौन इतना शक्तिशाली है जो भाग्य जैसी किसी चीज के कारण ऐसी आकस्मिक घटनाएँ घटित करा देता है जिनसे हमारा बहुत नुकसान (या लाभ) हो जाता है। इसी प्रश्न के उत्तर में ईश्वर की आवश्यकता पड़ती है। इसी कारण सभी समाजों, समुदायों में धर्म के माध्यम से ईश्वर की संकल्पना दी गई है और उसे एक नाम दिया गया है। ईश्वर की एक मूल विशेषता यह है कि वह सर्वशक्तिमान है और उसकी इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिलता। अर्थात उसकी इच्छा के बिना कोई भी घटना घटित नहीं हो सकती है। बस! मनुष्य को अपने भाग्य को नियंत्रित करने के लिए एक ऐसी ही चीज की तो आवश्यकता है। इसलिए वह पहुँच जाता है ईश्वर के दरबार में, उन सभी घटनाओं को नियंत्रित करने के लिए जिनके उसकी योजना में नहीं होने पर भी घटित होने की संभावना रहती है। यदि कहीं जा रहा है तो – हे भगवान! सकुशल पहुँच जाऊँ’, यदि घर की छत की ढलाई चल रही है और बादल लगे हैं तो – हे भगवान! आज न बरसे’, यदि दो दिन बीत गए और बादल अब भी लगे हैं तो – हे भगवान! आज बरस जाए पानी नहीं डालना पड़ेगा’, यदि परीक्षा का परिणाम आने वाला है तो – हे भगवान! प्रथम श्रेणी से पास हो जाऊँ इत्यादि अनेक प्रकार की याचनाएँ होती हैं। चूँकि भाग्य में अच्छी और बुरी दोनों प्रकार की घटनाएँ होती हैं, इसलिए याचनाएँ भी मूलत: दो प्रकार की होती हैं – बुरा न हो और अच्छा हो जाए। अपने लिए याचना करना तो कुछ हद तक ठीक भी है, बहुत सारे लोग तो ऐसी याचनाएँ लेकर पहुँचते हैं जैसे ईश्वर उनके ही काम के लिए खाली बैठा है। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति का पड़ोसी दबंग है और उसे तंग करता है तो वह पहुँच जाता है ईश्वर के पास, - हे ईश्वर! वह मुझे बहुत तंग करता है (और मैं उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाता इसलिए), आप उसका कुछ नुकसान कर दीजिए या कोई सजा दीजिए। यहाँ ध्यान दीजिए कि कोष्ठक में लिखी हुई बात उसके मन कहीं-न-कहीं रहती है, क्योंकि यदि वह खुद उसका कुछ बिगाड़ पाता तो ईश्वर के पास नहीं जाता, खुद ही उसे सजा देता। कभी किसी शक्तिशाली व्यक्ति को कमजोर को सजा दिलाने के लिए ईश्वर के पास जाते हुए नहीं देखा गया है। यह छोटा-सा काम वह स्वयं कर लेता है। किंतु जैसे-ही उससे अधिक शक्ति व्यक्ति से उसका पाला पड़ता है जिसका वह कुछ नहीं बिगाड़ सकता तो वह ईश्वर के पास पहुँच जाता है।
अत: निष्कर्ष यह है कि ईश्वर हो या न हो, मनुष्य को उसकी आवश्यकता है। इसलिए हमें ईश्वर को मानना ही पड़ेगा, चाहे जिस रूप में मानें। ईश्वर को मानने का एक बड़ा लाभ यही है कि जो घटनाएँ हमारी योजना में नहीं होने पर भी घटित हो जाती हैं, उन्हें हम ईश्वर की इच्छा मानकर संतोष कर लेते हैं। किसी व्यक्ति विशेष के साथ घटित होने वाली घटनाओं के अलावा वर्षा, सूखा, बाढ़, आँधी-तूफान, भूकंप, सुनामी आदि जैसी घटनाएँ भी हैं जिन पर नियंत्रण मनुष्य के बाहर की बात है। किंतु ये सीधे-सीधे मानव जीवन को प्रभावित करती हैं। इन्हें भी अपने अनुकूल बनाने के लिए ईश्वर से याचना की जा सकती है या की जाती है। जो लोग अपने को नास्तिक कहते हैं उनके पास भी इस बात का कोई जवाब नहीं है कि आकस्मिक घटनाएँ कैसे घटित होती हैं। उनसे कैसे निपटा जाए। इस कारण मानव समाज चाहे कितना भी शिक्षित हो जाए और वैज्ञानिक युग में जिए, जब तक आकस्मिक घटनाओं (भाग्य) के बारे में जाना नहीं जाता तब तक ईश्वर के बिना मनुष्य का काम नहीं चलने वाला।

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