(25-09-2017)
धर्म के अंधभक्त और कुछ प्रश्न-1
कल ही मैंने दुर्गापूजा और मोहर्रम पर बंगाल सरकार के आदेश के पीछे की मंशा और धर्म के नाम हमारी दिशाहीनता तथा दिखावा के संदर्भ में संकेत करते हुए ईश्वर/अल्लाह और उनके भक्तों के सापेक्ष कुछ प्रश्न उपस्थित किए। इस पर लगभग 1100 मित्रों में से 20-25 लोगों की प्रतिक्रिया बताती है ओशो का वह कथन बिल्कुल सही है कि ‘यह सोए हुए लोगों की दुनिया है’। तर्कपूर्वक सोचने के लिए हमें जगना पड़ेगा, विचार करना पड़ेगा, तथ्यों को खँगालना पड़ेगा....। ये सभी काम परीश्रम के हैं, जो हम करना नहीं चाहते। हम अपनी समस्याओं का आसान-सा हल चाहते हैं कि हमें अपनी ओर से जहमत न उठानी पड़े और बने-बनाए रास्तों पर चलते हुए चुपचाप जीवन कट जाए। एक बड़े विद्वान का कथन है कि शिक्षा का अर्थ बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ और नौकरियाँ प्राप्त करना नहीं है, बल्कि जीवन के प्रति सजग और तार्किक होने की भावना विकसित करना भी है। आज अफसोस की बात है कि शिक्षा को रोजगारपरक बनाते-बनाते हमने इसे केवल डिग्री और रोजगार पाने का माध्यम समझ लिया है। शिक्षा ऐसी जरूर हो कि रोटी, कपड़ा, मकान की समस्याओं का समाधान हो जाए, लेकिन ऐसी बिल्कुल न हो कि केवल रोटी, कपड़ा, मकान की समस्याओं का ही समाधान हो। यदि कोई शिक्षा व्यवस्था ऐसा करती है तो वह व्यवस्था हमें मानव पशु से ऊपर नहीं उठा सकती। हाल ही में आई एक फिल्म ‘द जंगल बुक’ में भेड़िया मोगली से कहता है कि तुम इनसान के बच्चे हो, इनसान की तरह लड़ो। यही बात हमारे ऊपर लागू होती है। हम इनसान हैं। प्रकृति ने हमें सोचने-विचारने और तर्क करने की क्षमता दी है तो हमें कूपमंडूक (कूएँ का मेढक) की तरह आस-पास जितना दिख जाए उतने पर ही संतोष कर लेने के बजाए सोचना ही चाहिए, नहीं तो मानव जन्म निरर्थक है।
कल ही मैंने दुर्गापूजा और मोहर्रम पर बंगाल सरकार के आदेश के पीछे की मंशा और धर्म के नाम हमारी दिशाहीनता तथा दिखावा के संदर्भ में संकेत करते हुए ईश्वर/अल्लाह और उनके भक्तों के सापेक्ष कुछ प्रश्न उपस्थित किए। इस पर लगभग 1100 मित्रों में से 20-25 लोगों की प्रतिक्रिया बताती है ओशो का वह कथन बिल्कुल सही है कि ‘यह सोए हुए लोगों की दुनिया है’। तर्कपूर्वक सोचने के लिए हमें जगना पड़ेगा, विचार करना पड़ेगा, तथ्यों को खँगालना पड़ेगा....। ये सभी काम परीश्रम के हैं, जो हम करना नहीं चाहते। हम अपनी समस्याओं का आसान-सा हल चाहते हैं कि हमें अपनी ओर से जहमत न उठानी पड़े और बने-बनाए रास्तों पर चलते हुए चुपचाप जीवन कट जाए। एक बड़े विद्वान का कथन है कि शिक्षा का अर्थ बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ और नौकरियाँ प्राप्त करना नहीं है, बल्कि जीवन के प्रति सजग और तार्किक होने की भावना विकसित करना भी है। आज अफसोस की बात है कि शिक्षा को रोजगारपरक बनाते-बनाते हमने इसे केवल डिग्री और रोजगार पाने का माध्यम समझ लिया है। शिक्षा ऐसी जरूर हो कि रोटी, कपड़ा, मकान की समस्याओं का समाधान हो जाए, लेकिन ऐसी बिल्कुल न हो कि केवल रोटी, कपड़ा, मकान की समस्याओं का ही समाधान हो। यदि कोई शिक्षा व्यवस्था ऐसा करती है तो वह व्यवस्था हमें मानव पशु से ऊपर नहीं उठा सकती। हाल ही में आई एक फिल्म ‘द जंगल बुक’ में भेड़िया मोगली से कहता है कि तुम इनसान के बच्चे हो, इनसान की तरह लड़ो। यही बात हमारे ऊपर लागू होती है। हम इनसान हैं। प्रकृति ने हमें सोचने-विचारने और तर्क करने की क्षमता दी है तो हमें कूपमंडूक (कूएँ का मेढक) की तरह आस-पास जितना दिख जाए उतने पर ही संतोष कर लेने के बजाए सोचना ही चाहिए, नहीं तो मानव जन्म निरर्थक है।
मेरे पिछले लेख
पर टिप्पणी करते हुए एक मित्र ने सुझाव दिया कि मैं अपनी बातों में ईसाई और बौद्ध
धर्मों का भी समावेश करके सबके बारे में ऐसा लिखूँ। सुझाव अच्छा है। मैंने पहले
लिखा था तो मेरा उद्देश्य यह नहीं था कि हिंदू या इस्लाम धर्मों की कमियाँ निकाली
जाएँ, या किसी भी धर्म व्यवस्था की कमी निकाली
जाए। यह जरूर था कि हम बिना सोचे-समझे धर्म प्रति इतने रूढ़ हो चुके हैं कि हमें
अपने पर इतना भी भरोसा नहीं रहा कि धार्मिक आयोजन की दिन भी हमारे अंदर सात्विक
विचार न आकर हिंसक विचार आएँगे। दुर्गा विसर्जन और मोहर्रम के दिन हिंसा की
संभावना दोनों धर्मों के लोगों की अपरिपक्वता और भटकाव को दिखाता है।
मित्र के सुझाव
के बाद जब मैंने विचार किया तो मुझे लगा कि ईसाई और बौद्ध धर्म के बारे में न
लिखकर मैंने अच्छा ही किया। सबसे पहले ईसाई धर्म के लोगों पर थोड़ा विचार कर लेते
हैं। हम किस मुँह से कहेंगे कि धार्मिक या सांस्कृतिक रूप से तुम लोग गलत हो। यह
तो हमारी संस्कृति की सीख है कि घर के अंदर से लेकर बाहर तक हर मामले में अनुकरण
भी उन्हीं का करते हैं और उल्टे मुँह कहते भी हैं,
कि उन्होंने हमारी संस्कृति को खराब कर दिया। अरे भाई, वे
लोग आपसे जबरजस्ती तो कर नहीं रहे हैं, तो भी आप अंडरवियर तक
उनकी संस्कृति का दिया हुआ क्यों पहनते हैं।
सुई से लेकर
अंतरिक्षयान तक सब उनकी उपज है। अगर आज हम सीना तानकर कह लेते हैं कि मनुष्य आज
चाँद या मंगल तक पहुँच चुका है तो यह उनकी सोच के बारे में बात हो रही है, हमारी सोच के बारे में नहीं। हम तो केवल उनका अनुकरण कर रहे
हैं। अपनी सोच और उनकी सोच में अंतर देखना हो तो सरस्वती शिशु मंदिर और कानवेंट
स्कूलों में पढ़ने-पढ़ाने के लिए लगने वाली भीड़ का अनुपात देखें। आप अपनी ड्रेस और
अपने पास पड़े हुए एक-एक सामान को देखें, उसमें हम कहाँ हैं? यहाँ तक कि आप यही देख लें कि जिस विज्ञान के दम पर इन देवी-देवताओं के
अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा किया जाता है उसी विज्ञान के अविष्कारों- लाउडस्पीकर, इलेक्ट्रिक लाइट आदि द्वारा इन्हें
महिमामंडित कर रहे हैं। ऐसे बहुत से तुलनात्मक प्रश्न खड़े किए जा सकते हैं, जिनका हमें अतार्किक उत्तर ही प्राप्त होगा।
इसी प्रकार बौद्ध
धर्म को लेकर भी सोचा जा सकता है। बौद्ध धर्म यह नहीं कहता है कि इस सृष्टि की
रचना महात्मा बुद्ध ने की, या महात्मा बुद्ध इस सृष्टि को संचालित कर
रहे हैं.... आदि। उसमें यह कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध ने सत्य को समझने का एक
मार्ग प्रशस्त किया। इसका संपूर्ण इतिहास उपलब्ध है। इसमें अतिरेकी प्रश्नों के
लिए स्थान बहुत कम है। आज बौद्ध धर्म के अनुयायियों के कर्मकांडों में जो भी
दिखावा की प्रवृत्तियाँ आई हैं उनमें उनके परिवेश का पर्याप्त असर है। पड़ोस में
धुवाँ हो तो आप अपने घर को कितना भी साफ सुथरा कर लीजिए,
दीवारें तो काली होंगी ही। मैं बौद्ध धर्म का अनुयायी नहीं हूँ, फिर भी मुझे गौतम बुद्ध की एक ही बात बहुत अच्छी लगी- ‘बिना तर्क किए किसी की भी बात को मत मानों, मेरी भी
नहीं।’ इसी बात ने मेरी नजरों में गौतम बुद्ध को महात्मा
बुद्ध बना दिया। मैं भी तो घुमा-फिराकर वही बात कह रहा हूँ। आप सभी देवी-देवताओं
को मानिए, अल्लाह को मानिए, पूजिए, सब कीजिए, लेकिन आप जिसे जिस रूप में मान रहे हैं, उसके बारे में एक बार तर्कपूर्वक सोचकर यह देख जरूर लीजिए कि क्या यह वही
है जो मैं सोच रहा था या केवल मैं भ्रम में हूँ।
थोड़ी हल्की बात (मजाक
में) करना चाहते हैं तो सुन लीजिए यदि आप मानते हैं कि कोई भी ईश्वर, जो पिछले 04-05 हजार सालों से अपने भक्तों पर पड़ने वाली विपत्ति
में सहायता करने नहीं आया, आपके बुलाने पर आ जाएगा तो यह भी मान लीजिए कि मोदी जी काला धन वापस लाकर सबके खातों में 15-15 लाख
डलवा कर रहेंगे।
धर्म के अंधभक्त और कुछ प्रश्न-3
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