Monday, November 28, 2016

प्रदूषण के खतरे को समय रहते समझना आवश्यक

गए शुक्रवार दो खबरें मिलीं। पहली, देश के सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली और आसपास के इलाके में पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी और दूसरी, गुरुवार की रात गुरुग्राम में वायु प्रदूषण तिगुना हो गया। मतलब? फैसला आने तक काफी नुकसान हो चुका था।
एक आपबीती से बात शुरू करता हूं।
दिवाली की अगली सुबह जब अपने शयन-कक्ष की खिड़की का परदा हटाया, तो सूरज लापता था। सामने धुंध की मोटी चादर और हाथ को हाथ न सूझने जैसे हालात। आने वाला पूरा हफ्ता दिल्ली और एनसीआर के लोगों ने किसी तरह हांफते-खांसते बिताया। अजीब हालात थे। जिधर नजर डालो, मुंह बांधे लोग। जिनके पास मास्क नहीं थे, उन्होंने चेहरे पर कपड़े कस रखे थे।
मौसम विभाग का दावा था कि प्रदूषण ने कई साल के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। यह भी कहा जा रहा था कि दिल्ली संसार की सबसे प्रदूषित राजधानी है और अभी उसे अपने पराभव की कुछ और सीढ़ियां उतरनी हैं। ऐसे दहलाने वाले हालात में हमारे राजनेता सियासी बाजीगरी में मशगूल थे। सूबाई हुकूमत ने कहा कि ऐसा पड़ोसी राज्यों में पराली जलाए जाने से हो रहा है। दूसरे पक्ष ने इसे केंद्र सरकार की असफलता बताया, तो अन्य तमाम तर्कों-कुतर्कों के सहारे हाय-हाय करने लगे। दूरगामी कदम उठाना तो दूर, सिर्फ आला स्तर की कुछ बैठकें हुईं। उनमें उभरे सुझावों को ऐसे पेश किया गया, जैसे हुकूमत क्रांतिकारी कदम उठाने जा रही है।
दरअसल, वे महज हवा की गति में बढ़ोतरी का इंतजार कर रहे थे, जो इस धुंध को अपने साथ उड़ा ले जाती है। ऐसा ही हुआ। जरा सी हवा चली, थोड़ी सी धूप खिली और हालात भले बहुत न सुधरे हों, पर जीने लायक जरूर हो गए।
मतलब साफ है। हम हवा की ‘स्पीड’ और सूर्य की रोशनी के हवाले हैं। हुकूमत के स्तर पर जो कड़ाई की जानी चाहिए, वह वांछित मात्रा से बहुत कम है। सिर्फ दिल्ली-एनसीआर के लोग ऐसी बदहाली झेल रहे हों, ऐसा नहीं है। उन दिनों उत्तर भारत के तमाम क्षेत्रों को भयानक धुंध ने घेर लिया था। स्वस्थ से स्वस्थ व्यक्ति को आंखों में जलन अथवा घबराहट हो रही थी। मुझे उन दिनों रह-रहकर महसूस होता, हम ऐसे अंधे युग की ओर बढ़ रहे हैं, जहां प्रकृति अपना स्वाभाविक नियंत्रण खो बैठेगी और सारी कायनात बेलगाम हो जाएगी।
पूरा पढ़ें-
http://www.livehindustan.com/news/shashi-shekhar-blog/article1-we-are-responsible-for-pollution-612989.html

Thursday, November 17, 2016

मशीन के खतरे और कृत्रिम बुद्धि

(बी.बी.सी. हिंदी से...)
फैक्ट्रियों में बहुत सी मशीनें ऐसी होती हैं जो एक ही काम को बार-बार करती रहती हैं. लेकिन उन मशीनों को स्मार्ट नहीं कहा जा सकता. आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस वो है जो इंसानों के निर्देश को समझे, चेहरे पहचाने, ख़ुद से गाड़ियां चलाए, या फिर किसी गेम में जीतने के लिए खेले.
अब ये आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस हमारी कई तरह से मदद करते हैं. जैसे एपल का सीरी या माइक्रोसॉफ्ट का कोर्टाना. ये दोनों हमारे निर्देश पर कई तरह के काम करते हैं. बहुत से होटलों में रोबोट, मेहमानों की मेज़बानी करते हैं.
आज ऑटोमैटिक कारें बनाई जा रही हैं. इसी तरह बहुत से कंप्यूटर प्रोग्राम हैं, जो कई फ़ैसले करने में हमारी मदद करते हैं. जैसे गूगल की आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस कंपनी डीपमाइंड, ब्रिटिश नेशनल हेल्थ सर्विस के साथ मिलकर कई प्रोजेक्ट पर काम कर रही है. आज कल मशीनें इंसान की सर्जरी तक कर रही हैं. वो इंसान के शरीर में तमाम बीमारियों का पता लगाती हैं.
बनावटी अक़्ल की मदद से आज बहुत से तजुर्बे किए जा रहे हैं. नई दवाएं तैयार की जा रही हैं. नए केमिकल तलाशे जा रहे हैं. जो काम करने में इंसान को ज़्यादा वक़्त लगता है, वो इन मशीनी दिमाग़ों की मदद से चुटकियों में निपटाया जा रहा है.
इसी तरह बहुत से पेचीदा सिस्टम को चलाने में भी इन आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद ली जा रही है. जैसे पूरी दुनिया में जहाज़ों की आवाजाही का सिस्टम कंप्यूटर की मदद से चलाया जा रहा है. कौन जहाज़ कब, किस रास्ते से गुज़रेगा, कहां सामान पहुंचाएगा, ये सब मशीनें तय करके निर्देश देती हैं. इसी तरह खनन उद्योग से लेकर अंतरिक्ष तक में इस मशीनी दिमाग़ का इस्तेमाल, इंसान की मदद के लिए किया जा रहा है.
शेयर बाज़ार से लेकर बीमा कंपनियां तक, मशीनी दिमाग़ की मदद से चल रही हैं. एयर ट्रैफिक कंट्रोल के लिए भी इस आर्टिफ़िशियल अक़्ल का इस्तेमाल किया जा रहा है. जैसे जैसे तकनीक तरक़्क़ी कर रही है, वैसे-वैसे स्मार्ट मशीनों का हमारी ज़िंदगी में दखल बढ़ता जा रहा है.

पूरा पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएँ-

http://www.bbc.com/hindi/vert-fut-37979055

Wednesday, November 16, 2016

? व्यक्ति एक काम अनेक ?


डॉ. धनजी प्रसाद एवं रागिनी कुमारी
जीवन कितना सरल है, यदि इसे सरलता से जिया जाए। मनुष्य के जीवन के तीन पक्ष हैंभौतिक, सामाजिक और मानसिक। भौतिक के अंतर्गत हैंरोटी, कपड़ा, मकान और अन्य संबंधित सुविधाएँ। वर्तमान परिस्थितियों में कोई भी व्यक्ति जिसकी प्रकृति भोगी या विलासी प्रकार की हो, सामान्य रूप से परिश्रम करते हुए ये सुविधाएँ जुटा सकता है। धन (पैसे) की आवश्यकता मूलत: इन जरूरतों की पूर्ति के लिए ही होती है। एक व्यक्ति को इस दृष्टि से कितना धन चाहिएयह उसकी संतुष्टि और लिप्सा पर निर्भर करता है। इस संदर्भ में मेरी तो स्पष्ट धारणा हैसाईं इतना दीजिए, जा में कुटुंब समाए जो भी व्यक्ति इस धारणा के साथ सचमुच जी रहा होता है उसे कम धनार्जन में भी सुख मिलता है। इसके विपरीत जिसकी इच्छा जितनी अधिक उसे उतना ही कम सुख मिलेगा। भौतिक सुख-सुविधाओं का कोई ओर-अंत नहीं है। इसमें तो वही स्थिति आती हैजितना पाओ उतना कम, जितना पाओ उतना कम।
मानव जीवन का समाजिक पक्ष अत्यंत जटिल है। भौतिक दृष्टि से सुखी होने पर सामाजिक पक्ष के कारण हमें समय-समय पर अनेक प्रकार की परेशानियों का अकारण (या अत्यंत तुच्छ बातों को लेकर) सामना करना पड़ता है। यद्यपि इसका दूसरा पक्ष भी है कि संकट की स्थिति में सामाजिक पक्ष से जुड़े लोगों द्वारा ही सहायता मिलती है। सामाजिक संबंध इतने जटिल होते हैं कि इनमें फँसा हर व्यक्ति एक ही समय में अनेक प्रकार के दायित्वों का वहन करता है, जिनमें से कुछ प्रमुख निम्नलिखित हैं
1.     व्यक्तिगतप्रत्येक व्यक्ति की अपनी कुछ इच्छाएँ होती हैं। वह व्यक्ति स्वयं जैसे जीना चाहता है, वैसे जीने के लिए समय निकालना और उस प्रकार से जी पाना आदि बातें इस दृष्टि से ध्यान देने योग्य हैं।
2.     पारिवारिकइसके दो प्रकार हैं
(क)  मूल-पारिवारिककोई भी मानव शिशु जिस परिवार में जन्म लेता है वह उसका मूल परिवार होता है। जन्म लेने के पश्चात माता-पिता, भाई-बहन आदि अनेक संबंधों से गुजरते हुए इनमें से प्रत्येक के लिए उसके दायित्व निश्चित हो जाते हैं।
(ख) नव-पारिवारिकजब किसी व्यक्ति की शादी होती है तो वहाँ से उसका नया परिवार आरंभ होता है। इस नए परिवार में पत्नी और उसके बाद बच्चे आते हैं। अब इनके वर्तमान को खुशीपूर्वक निकालना और भविष्य की योजनाएँ बनाना आदि अनेक जिम्मेदारियाँ अनायास ही जाती हैं। बच्चा होना मनुष्य के जीवन में गुलाम बन जाने की स्थिति है। इसलिए अपना जीवन जी लेने के बाद ही बच्चा पैदा करना चाहिए। उनका हर प्रकार से अपने से भी अधिक ध्यान रखना पड़ता है।
3.     व्यापारिक / रोजगार संबंधीअपनी भौतिक और सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए व्यक्ति कोई रोजगार करता है या नौकरी करता है। इसमें संबंधित व्यापार या नौकरी की प्रकृति के अनुरूप उसे अनेक जिम्मेदारियों को पूर्ण करना पड़ता है। इसके भी दो पक्ष हैं : पहलाउस व्यापार/रोजगार/नौकरी में प्राप्त कार्य को ठीक ढंग से और सफलतापूर्वक संपन्न करना; दूसराउस व्यापार/रोजगार/नौकरी से जुड़े लोगों से सकारात्मक संबंध स्थापित करना। वर्तमान व्यवहारिक परिस्थितियों में ये दोनों ही सामान्य परिवेश में सरलतापूर्वक संभव नहीं हो पाते। अपने हिस्से के काम को यदि आपने ईमानदारी से पूरा कर लेते हैं तो आपको कर्मठ तो कहा जाता है, किंतु दूसरे कामचोर लोगों का काम भी आप ही को दे दिया जाएगा। यदि आप उसे भी पूरा कर दें तो कुछ और मिल जाएगा। यह बोझ तब तक बढ़ेगा, जब तक आप आजिज आकर मना कर दें। जैसे ही आप मना करते हैं, वैसे ही संबंध बिगड़ने शुरु हो जाते हैं। यह स्थिति नौकरी करने वालों के साथ सबसे अधिक देखने को मिलती है। बॉस की नजरें हमेशा बैल को खोजती रहती हैं। यदि कोई व्यक्ति ईमानदारी से काम पूरा करने लगा तो उसे बैल बनाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जाती।
4.     पड़ोसीयसबको कहीं भी रहना तो इसी पृथ्वी पर है, वह भी मानव-बस्तियों में ही। इसलिए आप जहाँ भी रहते हैं, वहाँ आस-पास के लोगों से पड़ोसीय संबंध बनने लगते हैं। यद्यपि अब शहरों में यह कम होता जा रहा है, फिर कुछ--कुछ लोगों से संबंध बनाने ही पड़ते हैं। ऐसे में उनके कार्यक्रमों में जाना, अपने यहाँ बुलाना या कोई आवश्यकता होने पर उनसे माँगना, उनके द्वारा माँगे जाने पर सहयोग करना आदि लगा ही रहता है। यदि दो पड़ोसी समान भाव से एक दूसरे को महत्व देते हों तब तो कोई समस्या नहीं होती, परंतु जैसे ही दोनों के बीच का संतुलन बिगड़ता है, समस्या शुरु हो जाती है। ऐसे में आपके लिए पड़ोसीय संबंधों का निर्वाह करना कठिन हो जाता है।
5.     रिश्तेदार संबंधीप्रत्येक व्यक्ति का एक परिवार होता है। परिवार का निर्माण कुछ संबंधियों से होता है। एक मूल परिवार में निम्नलिखित संबंधी होते हैंपति-पत्नी और बच्चे। बच्चे आपस में भाई-भाई, भाई-बहन तथा बहन-बहन होते हैं, पति-पत्नी उनके लिए माता-पिता होते हैं। अब इनके इसी प्रकार के संबंधों से अन्य रिश्तेदार पैदा होते हैं, जैसेपिता का भाईचाचा’, पिता की बहनबुआ’, माता का भाईमामा’, माता की बहनमौसी आदि। सभी निकट (closed) रिश्तेदारों से संबंध बनाए रखना पड़ता है और उनसे संबंधित जिम्मेदारियों को भी पूर्ण करना होता है।
6.     राष्ट्रीय/प्रांतीयव्यक्ति जिस देश में रहता है, उससे जुड़े भी उसके कुछ कर्तव्य होते हैं। ये कर्तव्य देश की स्थिति और परिस्थिति के अनुसार होते हैं। जैसे - भारत में बिजली बचाना एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी है; अभी मोदी सरकार द्वारा सफाई को भी प्राथमिकता दी गई है, इसलिए इसे भी हमें अपनी जिम्मेदारियों में रखना होगा। इसी प्रकार संविधान में बताए गए कर्तव्य भी ध्यातव्य हैं। देश के अंदर राज्य होते हैं। राज्य स्तर पर भी हमारे कर्तव्य होते हैं, जिनका अलग से निर्वाह करना होता है। इसके अलावा विशेष परिस्थितियाँ भी होती हैं, जैसेकिसी आपदा (भूकंप, सूनामी, महामारी) आदि के आने पर राष्ट्रीय या प्रांतीय स्तर पर सहयोग करना होता है। इसके अलावा लोकतांत्रिक देशों में चुनावों में हिस्सा लेना भी एक बड़ी राष्ट्रीय जिम्मेदारी होती है।
7.     सामुदायिकव्यक्ति जिस समुदाय से जुड़ा रहता है, उसके प्रति भी जिम्मेदारियों को वहन करना पड़ता है। उदाहरण के लिए धर्म की दृष्टि से देखें तो व्यक्ति जिस धार्मिक समुदाय से जुड़ा रहता है, उस धर्म के आयोजनों में हिस्सा लेना और सहयोग करना; विभिन्न उत्सवों को अपने स्तर पर मनाना आदि। इसके अलावा भारत में जातीय अस्मिता भी है, इसलिए लोग जातीय सम्मेलनों या अन्य कार्यक्रमों में अपनी भागीदारी सुनिश्चित करते हैं।
8.     मानवीयहम मनुष्य हैं, अन्य प्राणियों से बिल्कुल अलग। हम अपने-आप को अन्य प्राणियों के मुकाबले अधिक विकसित होने की बात करते हैं। इसलिए कहीं भी जब आकस्मिक बात आती तो मानवता के नाम पर हमें उससे खुद को जोड़ना पड़ता है। कोई अपरिचित व्यक्ति घायल हो या कोई दूसरा प्राणी (पशु/पक्षी आदि) ही घायल हो तो हम मानवता के कारण उसके लिए जो हो सकता है, करने की भरपूर कोशिश करते हैं।
9.     नैतिक और सामाजिकमनुष्य को बहुत-सी बातों का नैतिक दृष्टि से भी ध्यान रखना होता है। इसमें हमारा पूरा आचार-व्यवहार जाता है। सामान्य जीवनचर्या से हटकर कुछ भी नया करने चलिए तो तुरंत एक प्रश्न पर विचार करना पड़ता है कि लोग क्या कहेंगे?’ इसलिए हमें अपने काम पर कम लोगों के कहने पर विशेष ध्यान देना पड़ता है। इस समस्या के कारण समाज में रहते हुए कुछ भी नया करना बहुत कठिन होता है। नैतिकता का संबंध हमारे आचरण का समाज की आकांक्षाओं के अनुरूप होने से है।
10.                         रचनात्मकप्रत्येक व्यक्ति जिस क्षेत्र में काम करता है, उसमें वह कुछ--कुछ नया प्रयोग करता रहता है। एक हलवाहा या मजदूर भी अपने काम को नए तरीके से करने के अलग-अलग विकल्पों की तलाश करता है। सामान्यत: लोग इसे अनजाने में या अचेतन रूप में करते हैं। किंतु कुछ इसे सचेतन रूप से करते हैं। बहुत सारे लोगों के अंदर कुछ नया कर डालने की धुन रहती है। लीक से हटकर किया जाने वाला रचनात्मक कार्य ही रचनात्मक कार्य कहलाता है। अनजाने में तो कुछ नया होता ही रहता है, जानबूझकर या सचेत रूप से नया करना अपने-आप में चुनौती भरा कार्य है। इसके लिए स्वस्थ शरीर एवं मस्तिष्क तथा पर्याप्त खाली समय की आवश्यकता पड़ती है। ऐसे में बाकी सभी कर्तव्यों को पूरा करते हुए रचनात्मक काम कर डालना आश्चर्य की ही बात होती है। विदेशों में ऐसे काम अधिक इसलिए होते हैं कि इस प्रकार का काम करने वाले लोगों को अन्य जिम्मेदारियों से मुक्त करके केवल इसी के बारे में सोचने के लिए लगा दिया जाता है। प्राइवेट कंपनियाँ भी यही तरीका अपनाती हैं। सरकारी नौकरी करने वाले लोगों को ऐसा माहौल मिलना ईद के चाँद दिखने जैसा ही है। यहाँ घोर निकम्मापन और बाबूगिरी ही देखने को मिलती है। अधिकांश लोग खुद तो काम करते नहीं, जो करता है या करना चाहता है, उसे भी बाधित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते। इसके बाद हमसे पूछा जाता है कि हम लोग आगे क्यों नहीं बढ़ पा रहे हैं। धिक्कार है ऐसे कर्मियों पर।
11.                         रुचि संबंधीअपने दैनिक और व्यावसायिक (नौकरी संबंधी) कामों के अलावा सबकी गायन, वादन, नृत्य, खेल, चित्रकला और लेखन आदि में से किसी में रुचि होती है। कुछ लोग तो अपनी रुचि को ही अपना कैरियर बना लेते हैं। ऐसे लोग अपने क्षेत्र में बहुत विकास करते हैं। परंतु सभी को ऐसा सौभाग्य प्राप्त नहीं होता। ऐसे में अपने अन्य कर्मों और दायित्वों को पूरा करने के बाद व्यक्ति अपनी रुचि के लिए समय निकालता है। इस संबंध मे अक्सर देखा जाता है कि अन्य जिम्मेदारियों के दबाव में व्यक्ति अपनी रुचि की बलि चढ़ा देता है।
12.                         प्रेम संबंधीविपरीत लिंगीय आकर्षण और इस पर आधारित तथाकथित प्रेम सहज मानव स्वभाव है। प्रेमानुभूति सभी प्राणियों में उनकी भौतिक एवं मानसिक स्थिति के अनुरूप पाई जाती है। मनुष्य में यह अपनी चरम अवस्था में होती है। वैसे तो प्रेम में पड़ने का कोई समय या कोई मानक नहीं है, फिर भी युवावस्था में पहुँचते-पहुँचते या इसे पार करते-करते सामान्यत: लोग कम-से-कम एक बार प्रेम के चक्कर में जरूर पड़ जाते हैं। कुछ लोग तो इसकी अनुभूति बार-बार करते रहते हैं। प्रेम की कोई भाषा नहीं है और ही इसका कोई ओर-अंत है। प्रेम का मानवीय पहलू बड़ा ही विचित्र है; करना तो सभी चाहते हैं लेकिन किसी और करने देना कोई नहीं चाहता। लोग करते हैं तो समाज से मुकाबला करना पड़ता है। इसका लाभ भी हुआ है। भारतीय साहित्य का बहुत बड़ा हिस्सा और संपूर्ण भारतीय सिनेमा का तो 90% तक हिस्सा प्रेम पर ही आधारित है। बिना प्रेमकथा के कोई फिल्म पूरी नहीं होती। कोई मिल गया, रोबोट और कृश3 जैसी विज्ञान और नवीन खोजों पर आधारित फिल्में भी प्रेमकथा के बिना पूरी नहीं हो पाई हैं। मतलब साफ है, बिना प्रेम हम कुछ नया सोच पाते हैं और देखना चाहते हैं। वास्तविक प्रेम-कहानियाँ प्राय: समाज का कोपभाजन बनती हैं। इसलिए बहुत से लोगों का प्रेम चुप्पे-चुप्पे ही चलता है और दम तोड़ देता है। समाज के डर बहुत सारे लोग तो प्रेम को व्यक्त या प्रकट भी नहीं कर पाते। प्रेमकथा को अंजाम तक पहुँचाने का काम कुछ साहसी युवा-युवती ही कर पाते हैं, भले ही इसके लिए उन्हें घर से भागना ही क्यों पड़े। लोग स्वयं प्रेम नहीं कर पाने की स्थिति में सफल प्रेम की फिल्में देखकर खुद को दिलासा देते हैं और सोचते हैं कि काश मैं भी ऐसा कर पाता। वैसे लैला-मजनूँ, हीर-राँझा जैसी हजारों प्रेम कहानियाँ प्रचलित हैं, फिर भी फिल्म वाले हमेशा कोई नई कहानी बनाते हैं और प्रेम में हारे लोग उसका रसास्वादन करते हैं।
13.                        आध्यात्मिक/आस्था-संबंधीमनुष्य का भौतिक के अलावा एक मानसिक संसार भी है। इसे भी वह प्रतिदिन जीता है। इसमें पर्याप्त दिमाग लगा लेने के पश्चात उसे आराम करने के लिए एके आश्रय की आवश्यकता पड़ती है। इसी आश्रय के स्रोत के रूप में धर्म अपना स्थान बनाता है। व्यक्ति एक धर्म में पहुँचकर अपने लिए ईश्वर तलाशता है। बहुत सी आकस्मिक घटनाएँ और मनुष्य के अनुमान से परे शक्तियाँ हैं। इनके भय से भी मनुष्य को ईश्वर की जरूरत पड़ती है। अत: इस दृष्टि से भी आस्था/अनास्था, ईश्वर के संबंध में विचार और पूजा-पाठ आदि के लिए समय लगाना होता  है।

इस प्रकार बहुत से बातें और बहुत से क्षेत्र हैं, जहाँ एक ही व्यक्ति को अपना समय और श्रम देना होता है। कुछ मुख्य क्षेत्रों और दिशाओं का ऊपर वर्णन किया गया है। हो सकता है कि कुछ और अभी छूटे भी हों। सबको जोड़कर देखा जाए तो बरबस ही मुँह से निकलता हैआदमी एक काम अनेक सबको प्रतिदिन 24 घंटे ही मिलते हैं। इसी में यदि इतनी सारी जिम्मेदारियाँ एक साथ हों तो निश्चय ही सबको सफलतापूर्वक पूरा करना असंभव हो जाता है। इसी कारण कहा गया है कि एक ही व्यक्ति सारे काम नहीं कर सकता। अत: हमें स्वयं तय करना पड़ता है कि किस काम को कितना समय दिया जाए। किसे प्राथमिकता दी जाए और किसे बिल्कुल अंत में समय मिलने पर किया जाए। सबकी प्राथमिकताएँ अलग हो सकती हैं। किंतु ऐसा नहीं हो सकता है कि किसी जिम्मेदारी से आप पूरी तरह मुक्त हो जाएँ। बस उस पर कम ध्यान दिया जा सकता है। इसलिए सफल जीवन जीने के लिए सबसे पहले अपने काम के सभी क्षेत्रों को निश्चित करें। इसके बाद तय करें कि किस क्षेत्र को कितना समय देना है और किसे पहले और किसे बाद में दिया जाना है।