Monday, November 28, 2016

प्रदूषण के खतरे को समय रहते समझना आवश्यक

गए शुक्रवार दो खबरें मिलीं। पहली, देश के सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली और आसपास के इलाके में पटाखों की बिक्री पर रोक लगा दी और दूसरी, गुरुवार की रात गुरुग्राम में वायु प्रदूषण तिगुना हो गया। मतलब? फैसला आने तक काफी नुकसान हो चुका था।
एक आपबीती से बात शुरू करता हूं।
दिवाली की अगली सुबह जब अपने शयन-कक्ष की खिड़की का परदा हटाया, तो सूरज लापता था। सामने धुंध की मोटी चादर और हाथ को हाथ न सूझने जैसे हालात। आने वाला पूरा हफ्ता दिल्ली और एनसीआर के लोगों ने किसी तरह हांफते-खांसते बिताया। अजीब हालात थे। जिधर नजर डालो, मुंह बांधे लोग। जिनके पास मास्क नहीं थे, उन्होंने चेहरे पर कपड़े कस रखे थे।
मौसम विभाग का दावा था कि प्रदूषण ने कई साल के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। यह भी कहा जा रहा था कि दिल्ली संसार की सबसे प्रदूषित राजधानी है और अभी उसे अपने पराभव की कुछ और सीढ़ियां उतरनी हैं। ऐसे दहलाने वाले हालात में हमारे राजनेता सियासी बाजीगरी में मशगूल थे। सूबाई हुकूमत ने कहा कि ऐसा पड़ोसी राज्यों में पराली जलाए जाने से हो रहा है। दूसरे पक्ष ने इसे केंद्र सरकार की असफलता बताया, तो अन्य तमाम तर्कों-कुतर्कों के सहारे हाय-हाय करने लगे। दूरगामी कदम उठाना तो दूर, सिर्फ आला स्तर की कुछ बैठकें हुईं। उनमें उभरे सुझावों को ऐसे पेश किया गया, जैसे हुकूमत क्रांतिकारी कदम उठाने जा रही है।
दरअसल, वे महज हवा की गति में बढ़ोतरी का इंतजार कर रहे थे, जो इस धुंध को अपने साथ उड़ा ले जाती है। ऐसा ही हुआ। जरा सी हवा चली, थोड़ी सी धूप खिली और हालात भले बहुत न सुधरे हों, पर जीने लायक जरूर हो गए।
मतलब साफ है। हम हवा की ‘स्पीड’ और सूर्य की रोशनी के हवाले हैं। हुकूमत के स्तर पर जो कड़ाई की जानी चाहिए, वह वांछित मात्रा से बहुत कम है। सिर्फ दिल्ली-एनसीआर के लोग ऐसी बदहाली झेल रहे हों, ऐसा नहीं है। उन दिनों उत्तर भारत के तमाम क्षेत्रों को भयानक धुंध ने घेर लिया था। स्वस्थ से स्वस्थ व्यक्ति को आंखों में जलन अथवा घबराहट हो रही थी। मुझे उन दिनों रह-रहकर महसूस होता, हम ऐसे अंधे युग की ओर बढ़ रहे हैं, जहां प्रकृति अपना स्वाभाविक नियंत्रण खो बैठेगी और सारी कायनात बेलगाम हो जाएगी।
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http://www.livehindustan.com/news/shashi-shekhar-blog/article1-we-are-responsible-for-pollution-612989.html

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