Saturday, November 12, 2016

धर्म की दुकान और तार्किक सोच


डॉ. धनजी प्रसाद एवं रागिनी कुमारी
पिछले आलेख ईश्वर : आवश्यकता और अस्तित्व में मनुष्य के संदर्भ में ईश्वर को समझने का प्रयास किया गया है। धर्म ईश्वर की दुकान है जिसकी नींव भय और लोभ पर टिकी है। यह बात सभी धर्मों पर बराबर-बराबर लागू होती है। बस सबका तरीका अलग-अलग है। विज्ञान हमारी तार्किक सोच का सबसे बड़ा प्रमाण है। आज सब लोग बहुत सीना चौड़ा करके कहते फिर रहे हैं कि विज्ञान के युग में जी रहे हैं। तो क्या हुआ? आज भी हमारी धर्म के प्रति आसक्ति कम नहीं हुई है। हमने प्रयोग और व्यवहार की दृष्टि से कह दिया कि विज्ञान तो हमारा एक टूल (औजार) है जिसका हम अपनी आवश्यकतानुसार जीवन में प्रयोग करते हैं। तो फिर धर्म और विज्ञान को तुलनात्मक रूप से क्यों देखा जाता है। इसका उत्तर विज्ञान की सैद्धांतिक दृष्टि में छुपा हुआ है। सिद्धांतत: विज्ञान किसी भी बात या घटना के लिए कार्य-कारण संबंध की व्याख्या करता है। इसके विपरीत धर्म केवल आस्था और विश्वास से काम चलाता है। यही विश्वास कब अंधविश्वास में बदल जाता है, हमें पता भी नहीं चलता।
उदाहरण के लिए विज्ञान ने अनेक प्राकृतिक घटनाओं की कार्य-कारण संबंध आधारित व्याख्या की है, जैसे- बारिश कैसे, क्यों, कब और कितनी होती है? बिजली कैसे चमकती है? आदि। धर्म की दृष्टि से तो सब ईश्वर की माया है। उसे समझने की जरूरत नहीं है और यह मनुष्य के वश की बात भी नहीं है। विज्ञान जानने पर बल देता है, धर्म मानने पर बल देता है। विज्ञान की सभी बातें प्रामाणिक और तथ्यात्मक होती हैं। धर्म की सभी बातें काल्पनिक अथवा मानी गई होती हैं। वैसे धार्मिक बातें मनुष्य द्वारा ही लिखी या बताई गई हैं। इस कारण उनमें से कुछ बातें तार्किक भी होती हैं। लेकिन धर्म अपनी किसी भी बात को प्रमाणित करने की गारंटी नहीं लेता। ऊपर से हमें धमकी भी रहती है कि धर्म की हर बात को मानना ही पड़ेगा, नहीं तो ईश्वर के दंड को भोगने के लिए तैयार रहो।
धर्म की पूरी दुकान एक तरफ भय और दूसरी तरफ लोभ पर टिकी हुई है। साथ-ही इसमें आलस्य का भी पर्याप्त पुट है। इसमें इच्छित फल की प्राप्ति के लिए आपको कष्ट नहीं उठाना है। बस ईश्वर से माँगना है। तब तक माँगते रहना है जब तक मिल जाए या आप निराश होकर नास्तिक बन जाए। अब जो दुकान मनुष्य की तीन बड़ी कमजोरियों को पकड़कर बनाई गई है, वह भला चलेगी क्यों नहीं। अरे चलेगी क्या यह तो दौड़ेगी! और सचमुच आज तक दौड़ रही है। किसी ने कहा हैधर्म एक अफीम है, एक बार लत लग जाने के बाद लोगों को कितना भी इससे दूर करो, वह छोड़ नहीं सकता। मैं इसे नहीं मानता। हाँ, धर्म की स्थापना और इसके संचालन में कुछ ऐसी बातें जरूर हैं कि इसे छोड़ पाना संभव नहीं दिखाई पड़ता है। धर्म बचपन से ही हमारे खून में घुस जाता है।  इसलिए इसकी छाप इतनी गहरी होती है कि इससे मुक्त होने के लिए एक बार मस्तिष्क तैयार भी हो जाए तो पूरा शरीर स्वयं उसका साथ नहीं दे पाता।
धर्म को बनाए रखने में सबसे बड़ी चीज हैभय मनुष्य के जीवन में घटनाएँ दो प्रकार से घटित होती हैंनियोजित और आकस्मिक। नियोजित से तात्पर्य उन घटनाओं से है, जो हमारी योजना के अनुसार घटित होती हैं। इन घटनाओं के घटित होने की अनुमानित अवधि और स्थिति निश्चित होती है,और यदि कोई बाधा आए तो ये घटनाएँ योजनानुसार क्रमश: होती रहती हैं। उदाहरण के लिए शिक्षा योजना। इसमें एक निश्चित अवधि (जैसे बच्चा जब चार/पाँच वर्ष का हो जाए) में मानव शिशु प्रवेश करता है। वर्ष के निर्धारित समय (भारत में जून-जुलाई) बच्चे का संबंधित कक्षा में प्रवेश होता है और फिए पढ़ाई, तब परीक्षा और उसके बाद बच्चा/बालक संबंधित कक्षा पास कर ऊपरी कक्षा में चला जाता है। यही क्रम कक्षा एक से लेकर एम../पी-एच.डी. तक चलता है। इसी प्रकार किसी गंतव्य पर जाना हो तो व्यक्ति तैयार होता है, वाहन लेता है, घर से निकलता है और वाहन पर बैठकर (या को चलाते हुए) गंतव्य तक पहुँच जाता है। इस तरह की घटनाएँ प्रतिदिन हमारे जीवन में घटित होती हैं और बड़ी सहजता से इन्हें हम जीते हैं। यदि सबकुछ ऐसे ही चले तो ईश्वर और उसकी दुकानदारी धर्म की आवश्यकता नहीं है।
किंतु घटनाओं का दूसरा पक्षआकस्मिक मानव जीवन की सबसे बड़ी पहेली है। जीवन की लगभग 90 प्रतिशत घटनाएँ नियोजित तरीके से ही घटित होती हैं, किंतु 10 प्रतिशत घटनाएँ ऐसी घटित होती हैं जिनके बारे में हमें तो कोई पूर्वानुमान होता है और ही हमें कोई उम्मीद होती है। ये घटनाएँ ही आकस्मिक घटनाएँ होती हैं। ये घटनाएँ सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार की होती हैं। वैसे व्यावहारिक स्तर पर देखा जाए तो मानव जीवन का यह दुर्भाग्य है कि नकारात्मक आकस्मिक घटनाएँ ही अधिक घटती हैं। या हो सकता है कि दोनों बराबर मात्रा में घटती हों, चूँकि मनुष्य स्वार्थी प्राणी है इसलिए उसे फायदे की बातें तो याद रहती नहीं हैं, बस नुकसान का रोना रोता रहता है। खैर, यहाँ मूल बात यह है कि ये आकस्मिक घटनाएँ ही ईश्वर और फिर उसके परिप्रेक्ष्य में धर्म को स्थान दिला देता है। आकस्मिक घटनाएँ इतनी खतरनाक होती हैं कि उनमें जान जाने तक का खतरा रहता है, जैसेएक्सीडेंट, किसी जहरीले जीव का काटना, आग लगना, डूब जाना, बिजली गिरना या करंट लगना आदि। बहुत से कारण हमेशा हमारे चारों तरफ मौजूद रहते हैं। कोई भी व्यक्ति इनसे घिसते हुए चलता है। हमारी सहज प्रवृत्ति रही है कि विपत्तियों से लड़ने के बजाए हम उनसे बचने का रास्ता निकालते हैं। अब इस काम के लिए ईश्वर से सुरक्षित जगह कहाँजो सर्वशक्तिमान है और जिसके इशारों से से पूरा ब्रह्मांड चल रहा है। उसकी इच्छा के बिना तो एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। (लगभग सभी धर्मों में ये अर्थ रखने वाली बातें किसी किसी रूप में कही गई हैं)
बस इसी का फायदा उठाते हैं धर्म के दुकानदार और आपके जीवन में कोई नकारात्मक आकस्मिक घटना घटे, इसके लिए ईश्वरीय अस्त्र-शस्त्र प्रदान करने लगते हैं। हम डरपोक लोग, अपने या किसी और के जीवन में कोई भी अनिष्टकर घटना को देखते ही तो उसका तार्किक कारण खोजने का प्रयास करते हैं और ही उसका हल। सीधे-सीधे ईश्वर के बाजार धर्म में पहुँच जाते हैं। वैसे कुछ शिक्षित और तार्किक प्रवृत्ति के लोगों द्वारा इसका विरोध भी लगातार किया जाता रहा है लेकिन धर्म के दुकानदारों ने अपना इतना तगड़ा माहौल बनाकर रखा है कि उसमें ऐसे लोगों की आवाजें दबकर दम तोड़ देती हैं। यदि आप किसी विपत्ति में पड़ने के बाद भी हिम्मत बनाए रखना चाहते हैं तो आपके आस-पास के लोग आपको अच्छा-बुरा समझाना शुरू कर देते हैं और अतिहितैसी तब तक दम नहीं लेते जब तक आप उनकी बातें मान लें। एक तो आकस्मिक विपत्ति आने के बाद व्यक्ति की हिम्मत वैसे ही आधी हो चुकी होती है, ऊपर से इन लोगों का दबाव आग में घी का काम करता है और अंतत: आप धर्म के दलदल से बाहर निकल नहीं पाते। इसलिए जब तक आकस्मिक घटनाओं के लिए हमारे अंदर भय रहेगा तब तक धर्म की दुकानदारी चलती रहेगी।
धर्म के अस्तित्व का दूसरा प्रमुख कारण लोभ है। हमारा दिन अच्छा रहे, हमारा कोई उद्देश्य बिना किसी बाधा के पूर्ण हो जाए... इस तरह की बातों के लिए गारंटी लेने वाला ईश्वर के अलावा कौन है। विश्वास नहीं होने के बाद भी लोग प्रतिदिन अपनी दुकान में अगरबत्ती जलाते हैं कि दुकान अच्छे से चले। विद्यार्थी सबसे ज्यादा परीक्षा के दिनों में मंदिर/मस्जिद/गिरजाघर के चक्कर लगाते हुए देखे जा सकते हैं। बिना मेहनत के कोई भी चीज पाने के बारे में सोचने के लिए ईश्वर की दुकान (मंदिर/मस्जिद/गिरजाघर) से अच्छी जगह क्या हो सकती है। माँगने वालों का क्या? वे तो ईश्वर से ये भी माँगते देखे गए हैं कि इच्छित लड़की पट जाए। बेचारा ईश्वर उस लड़के या लड़की को बनाते समय तो उसके दिमाग में ऐसी बात नहीं ही आई होगी। इसलिए जब तक हमारे अंदर लोभ और स्वार्थ रहेगा, धर्म की दुकानदारी चलती रहेगी।
धर्म के बने रहने और इसकी दुकानदारी के चलते रहने का सबसे बड़ा और आधारभूत कारण या पक्ष हैसंतोष या संतुष्टि जब व्यक्ति सब तरह से प्रयत्न करके हार जाता है तब कहता है कि क्या कर सकते हैं। जब मनुष्य सब तरफ से हाथ-पैर मारकर थक जाता है तो संतोष कर लेता कि ईश्वर की यही मर्जी थी तो वह क्या कर सकता है। लेकिन इस संतोष का आधार भी ईश्वर ही होता है। इसलिए संतोष करने के लिए भी ईश्वर/धर्म की आवश्यकता है।


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